Vivek Chaurasiya
शीर्षक – गांव को चले…..
जब नौकरी ना रही, ना कोई ठिकाना रहा,
तो नंगे पांव ही गरीबों की गरीबी चली।
लगता तो ऐसे था जैसे बदनसीबों के घर बदनसीबी चली,
कोई अकेला ही चला, तो कोई झुंड बनाकर चलें।
और साहब इन मुसाफिरों का लक्ष्य सिर्फ एक ही था,
गांव को चले….गांव को चले….गांव को चलें….
चलते-चलते पांव में छाले पड़ गए,
और इस आर्यावर्त में पानी के लाले भी पड़ गए।
फिर भी अपने गमों को बुलाते हुए, ये मुसाफिर!
गांव को चले…. गांव को चले….गांव को चलें….
बंद पड़ गई, सारे कारखाने;
बंद पड़ गई ओ, दो पटरी पर दहाड़ने वाली गाड़ियां;
नहीं मिला कोई इस बड़ी आबादी में पूछने को;
तो ये मुसाफिर! बना के अपना कांराव, ठान कर अपना लक्ष्य,
गांव को चलें….गांव को चले….गांव को चले….
…. विवेक चौरसिया
छात्र,लखनऊ विश्वविद्यालय;लखनऊ
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