राणा प्रताप मार्ग पर स्थित मोती महल में मुहब्बत और जंग की कहानी है। इसे यूं ही मोती महल नहीं कहते हैं। दरअसल 18वीं सदी में नवाब सआदत अली खां ने गोमती के दायें किनारे पर एक आलीशान महल बनवाया था। इसके गुंबद की सूरत और चमक मोती जैसी थी इसलिए यह मोती महल कहलाया। इससे जुड़ी एक और कहानी भी है। जिसके अनुसार उनकी पत्नी मोती बेगम इसमें रहती थीं। पहले बेगम का नाम टाट महल था जिसे नवाब ने बदल दिया था। आसफुद्दौला के बनवाए शीशमहल की स्पर्धा में मोती महल की नींव पड़ी थी।
नवाब की कई शादियां बनारस में हो चुकी थीं। उन सब में सआदत अली खां को टाट महल बेहद अजीज थीं। सआदत अली खां ने मोती महल इन्हीं के लिए बनवाया था। मोतीमहल में रहने से पहले टाट महल दौलत सराय में रहती थीं। उन्हें मोती के जेवरों के प्रति विशेष आकर्षण था। इस कारण बेगम के लिए नवाब ने मोतीमहल के गुंबद पर सीप की चमक से मोती की आब पैदा कर दी थी। नवाब के गुजरने के बाद टाटमहल बावली वाले मकान में जाकर रहने लगीं और वहीं अपनी बाकी जिंदगी गुजार दी। नवाब ने दो अन्य महल भी बनवाए थे जिन्हें शाह मंजिल और मुबारक मंजिल के नाम से जाना जाता है।
गदर के बाद तबाही का मंजर
गदर के बाद मोती महल में तबाही का मंजर नजर आने लगा। उस तबाही के बाद इसकी सुंदरता खत्म हो गई थी। यह महाराजा बलरामपुर की संपत्ति हो चुका था। बाद में इसका जीर्णोद्धार हुआ जिससे इसकी बनावट में परिवर्तन हो गया। हालांकि महल की दीवारें वही पुरानी ही हैं।
मोती महल के पीछे था पुल
उस जमाने में मोती महल के पीछे गोमती पर किश्तियों का एक पुल था। पुल के पार एक अंग्रेज ब्रिगेडियर का बंगला था। शाह मंजिल, मोती महल के पश्चिम की ओर बनी थी जिसके अहाते में छोटे-मोटे जानवरों की लड़ाई देखी जाती थी। बादशाह शाह मंजिल की छत से अपने दोस्तों के साथ इस लड़ाई को देखा करते थे। सामने वाले मैदान को हजारी बाग कहा जाता था। जब हैवलाक ने मोती महल पर कब्जा कर लिया, तो विद्रोही इसी पुल से होकर दरिया के उस पार चले गए थे।
मशहूर थे मोती महल के घाट
1866 में मिस्टर ब्रूस इंजीनियर के नक्शे पर मोती महल बनवाया गया था, जो अब तोड़ा जा चुका है। इस पुल के किनारे के सब घाट मोती महल घाट नाम से मशहूर हैं। इन घाटों के पूरब में एक महल की मरम्मत करवा कर जैकसन साहब बैरिस्टर रहा करते थे। अब उस महल को राजा ओयल ने ले लिया है। इसके सामने की ग्राउंड, मोती महल ग्राउंड कहलाती थी जहां अब स्टेडियम बन चुका है।
पत्थर की जुबानी
मोती महल की चहारदीवारी के पश्चिमी कोने पर एक पत्थर लगा है, जिसमें इस बात का जिक्र है कि सर जेम्स आउटरम और सर हेनरी हैवलाक के साथ आने वाली मददगार अंग्रेजी फौजें और रेजीडेंसी की स्थानीय ब्रिटिश सेना का पहला संगम उसी स्थान पर हुआ था। ये मुलाकात 17 नवंबर 1857 को हुई थी।
इमारत से जुड़ीं अन्य बातें
- मोती महल में ही बादशाह गाजीउद्दीन हैदर बीमार पड़े थे। जब उनकी बीवी बादशाह बेगम उन्हें देखने आई थीं, तो वो मुंह से कुछ न बोले और दुशाला ओढ़ लिया था। उसी रात को पिछले पहल 18 अक्टूबर 1827 को उनका उसी महल में इंतकाल हो गया था।
- मोती महल के अहाते में ही डॉ. बारट्रम और ब्रिगेडियर कूपर 27 सितंबर 1857 को मार डाले गए थे। इसी महल के सामने कालिन कैंपवेल जख्मी हुआ था। गदर के जमाने में कैप्टन क्रंप, जिसके पास मद्रास का हथियारखाना था, यहीं मारा गया।
- 25 सितंबर 1857 की रात जनरल हैवलाक की फौज का डेरा मोती महल में हुआ था, जिसमें भारी तोपें, तमाम हथियारखाने और बहुत से जख्मी सिपाही भी थे।
मौजूदा समय में स्थिति
अब मोती महल में मोतीलाल नेहरू मेमोरियल सोसाइटी, भारत सेवा संस्थान, शिक्षा समिति और उप्र बाल कल्याण परिषद आदि के कार्यालय खुल गए हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त की समाधि भी इसी क्षेत्र में बनी है।
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