जानिये आखिर क्यों बनवाई गई थी भूलभुलैया ?


भूलभुलैया बड़े इमामबाड़े के उपरी हिस्से में 105 मीटर दायरे में फैला इमामबाड़े का वो महत्वर्पूण अंग है जो न सिर्फ लखनऊ बल्कि पुरे विश्व में प्रसिद्ध है. भूलभुलैया असल मे सैंकड़ो मार्ग और सुरंगों की वो जटिल प्रणाली होती है जिसमे कोई भी व्यक्ति आसानी से भ्रमित हो जाता है.बड़ा इमामबाडा का निर्माण लखनऊ के चौथे नवाब असफ उद दौला ने अकाल ग्रस्त अवध की प्रजा को रोजगार देने के मकसद से बनवाया था.

जो लोग नहीं जानते उन्हें बता दें इमामबाडा किसी मस्जिद या दरगाह को नहीं कहा जाता , बल्कि वो एक पवित्र कक्ष ( हॉल ) होता है जहां शिया मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग मुहर्रम के दिन इकट्ठे होकर शोक मनाते है. मुहर्रम मोहम्मद इब्न अब्दुल्ला  के पोते हुसैन अली की मौत की सालगिराह पर मनाया जाता है जो कर्बला की लड़ाई में मारे गये थे.

 

भूल भुलैया और बड़े इमामबाड़े का इतिहास

नवाब असफ उद दौला बड़े ही दरियादिल इंसान थे उनके बारे में कहावत थी के ‘ जिसको ना दे मौला , उसको दे असफ उद दौला ‘. 1784 में लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा, पूरा अवध दाने दाने का मोहताज हो गया तो लोग मदद मांगने नवाब के पास गये, तब नवाब साहब को उनके वजीरो में सलाह दी के वो खजाने में जमा राशि गरीबो में बाँट दे. मगर नवाब साहब का मानना था के ऐसे खैरात में धन बांटने से लोगो को हराम का खाने की आदत पड़ जाएगी. इसलिए उन्होंने रोजगार देने के लिए एक इमारत का निर्माण कार्य शुरू करवाया जिसको बाद में बड़ा इमामबाड़ा नाम दिया गया.

इमामबाड़ा बनवाने से पहले नवाब साहब ने इसके नक़्शे को बनवाने के लिए एक मुकाबला करवाया था जिसे दिल्ली के एक मशहूर वास्तुकार किफ़ायत उल्लाह ने जीता था. उनके बनाये नक़्शे के तहत 14 साल में बनकर तैयार हुए इमामबाड़े के परिसर में एक असफी मस्जिद, बावड़ी और भूलभुलैया भी मौजूद है. इमाबाड़े के निर्माण के दौरान लघभघ पुरे लखनऊ के बाशिंदे काम करने आते थे, और ऐसा माना जाता है की गरीब लोग दिन में इमारत को बनाते थे और अमीर ऊँचे ओहदे के लोग रात में उसे तोड़ देते थे.

 

भूलभुलैया क्यों बनवाई गई थी ?

भूलभुलैया बनाना बड़े इमामबाड़े के निर्माण के दौरान वास्तुकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी . क्यूंकि नवाब साहब इमामबाड़े के मुख्य कक्ष को बड़ा ( 170 x 55 फीट ) बनवाना चाहते थे वो भी बिना किसी स्तंभ ( PILLAR ) के ताकि उसमे ज्यादा से ज्यादा लोग इकट्ठे होकर प्रार्थना कर सके. अब चुनौती ये थी के बिना स्तम्भ के भारी भरकम छत्त और गुम्बद का वजन ये इमारत कैसे झेल पाएगी ?

कई हफ्तों तक विचार करने के बाद फैसला लिया गया के छत्त को खोखला बनाया जाएगा जिस से छत्त का आधा वजन कम हो जाएगा जो की इमारत की दीवारे  बिना सहारे के झेल लेंगी . तब जाकर छत्त पर सैंकड़ो दरवाजे बनाये गये जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए है और इस अद्भुत रचना को नाम दिया गया भूलभुलैया .

 

सच बताऊं तो मैंने पहली बार भूलभुलैया देखी थी इसलिए थोडा डर लग रहा था क्यूंकि बचपन में किस्से सुनते थे की जो कोई इनमे जाता है वो खो जाता है , हमारे हरियाणा में नारनौल में एक भूलभुलैया है जहाँ एक पूरी बारात के खो जाने की कहानी काफी प्रचलित है. लेकिन लखनऊ में ऐसा कुछ नहीं लगा, दरवाजे आपस में जुड़े हुए है, बीच बीच में झरोखे भी है इसलिए कुछ देर मशक्कत करने के बाद भूलभुलैया से बाहर आ सकते है.

खैर मै गाइड के साथ था और आपको भी सलाह दूंगा आप भी अकेले न जाए गाइड के साथ ही जाएँ, उनसे कुछ झूठी और कुछ सच्ची कहानिया भी सुनने को मिलेंगी. यहाँ एक और मजेदार उदाहरण देखने को मिलता है, वो मुहावरा सुना होगा की दीवारों के भी कान होते है ? उसका उदाहरण है बड़े इमामबाड़े के अंदर का परिसर जहाँ माचिस की तिल्ली के जलने की आवाज भी एक कोने से दुसरे कोने में सुनाई देती है.

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दीवारों को देखने पर अंदाजा होता है की पर्यटन विभाग भूलभुलैया को भूल गया है , कई जगह चूना झड रहा है, पत्थर उखड रहे है  और जहाँ दीवार जर्जर नहीं थोड़ी सही हालत में है वहां कुछ आशिको ने इबारते लिख रखी है.  कुल मिला कर 1024 में से कुछ दरवाजे जर्जर होके बंद हो चुके है और धीरे धीरे बाकी का हिस्सा भी उसी कगार पर है.

 

आसपास घूमने लायक अन्य जगह –

बड़े इमामबाड़ा से कुछ कदम दुरी पर रूमी दरवाज़ा और लघभग 1 km. दूर छोटा इमामबाडा और जामा मस्जिद है जो की जरुर देखने लायक जगह है.

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