जिसे आज हम लखनऊ कहते हैं, उसे पहले कभी अवध कहा जाता था. हालांकि अवध की सीमा वर्तमान लखनऊ से ज्यादा बड़ी थी. प्राचीन काल में अवध की राजधानी अयोध्या थी. बाद में फैजाबाद और उसके बाद लखनऊ हो गई.
लखनऊ को आज ‘अदब और नवाबों का शहर’ कहा जाता है. अवध में नवाबों का इतिहास शुरू होता है 1722 से. जब सआदत अली खान ने यहां अवध वंश की संस्थापक की. दिल्ली में मुगल सल्तनत की ओर से अवध पर शासन के लिए इन्हें नियुक्त किया गया था.
बहरहाल, वाजिद अली शाह अवध के आखिरी नवाब थे. इन्हें अंग्रेजों ने कलकत्ता में कैद कर दिया और फिर 21 सितंबर 1887 को इनकी मौत हो गई.
यूरोपियन साम्राज्यों की नजर अवध पर कब्जे की थी. ऐसे में लखनऊ या अवध ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी. उसने सबसे पहले मुगल शासकों के साथ मिलकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के खिलाफ 1764 में बक्सर का युद्ध लड़ा. हालांकि यहां अग्रेज जीत गए, लेकिन वो अवध को अपना नहीं बना पाए.
इसके बाद अवध को कई बार अंग्रेजों ने अपने कब्जे में लेने की कोशिश भी की, इसमें वे कुछ हद तक कामयाब भी रहे, लेकिन वो इस पर अपना अधिकार नहीं कर पाए.
अवध ने 1857 की क्रांति में भी अंग्रजों की ईंट से ईंट बजा दी थी. अवध लगभग साम्राज्यवाद की समाप्ति तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ता रहा और उसने कभी भी उनके सामने अपने घुटने नहीं टेके.
ऐसे में आइए, एक बार फिर से अवध या लखनऊ के इतिहास पर नजर डालते हैं –
पहले गजनवी, फिर मुगलों ने किया शासन
इतिहासकारों के अनुसार, पहले कभी लखनऊ पर महमूद गजनवी पर कब्जा रहा. उसके बाद 1526 ई. में यहां हुमायूं ने अपना कब्जा जमाया. इस तरह से लखनऊ मुगल सल्तनत का एक हिस्सा बन चुका था.
अकबर के शासनकाल के दौरान, शेख अब्दुल रहीम या शेख अब्दुल रहमान को लखनपुर और इसके आसपास के क्षेत्रों का जागीरदार बना दिया गया. शेख अब्दुल रहीम ने यहां ऐतिहासिक मच्छी महल और अपने व अपनी पत्नियों के लिए 5 महलों का निर्माण कराया.
मच्छी महल के 26 मेहराबों में हरेक पर दो मछलियों के भित्ति चित्र उभरे हुए हैं. आगे चलकर यही दो मछलियां शेख, नवाबों और फिर अंग्रेजों का प्रतीक चिन्ह बन गईं.
सन 1722 में बुरहान-उल-मुल्क मीर मुहम्मद अमीन मुसावी सआदत खान उर्फ सआदत खान को अवध का गवर्नर नियुक्त किया गया. तब इन्हें वजीर उल मुल्क कहा जाता था.
अपनी नियुक्ति के बाद इन्हें शेख अब्दुल रहीम के वंशज शेख जादास की नाराजगी का सामना करना पड़ा. आखिरकार, दोनों में युद्ध हुआ और सआदत खान की प्रशिक्षित सेना ने मच्छी भवन पर कब्जा कर लिया. बस फिर क्या था, यहीं से अवध में नवाबों का दौर शुरू हो गया.
लखनऊ की संस्कृति, कला और अदब की जो मिसालें आज पेश की जाती हैं, 18वीं और 19वीं सदी के दौरान नवाबों के शासनकाल में लखनऊ ने उस तरह की तरक्की की थी.
हालांकि, पुराने लखनऊ को बसाने और उसे बनाने का श्रेय चौथे नवाब असफउद्दौला को जाता है.
अवध में अंग्रेजों का प्रवेश
5 अक्टूबर 1754 को नवाब बने जलालुद्दीन शुजाउद्दौला हैदर के शासनकाल में अंग्रेजों का अवध में प्रवेश हुआ.
22 अक्टूबर 1764 को ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के खिलाफ बक्सर के युद्ध में शुजाउद्दौला ने बंगाल के नवाब मीर कासिम और मुगल शासक शाह आलम का समर्थन किया था.
इससे पहले शुजाउद्दौला, अहमद शाह अब्दाली के साथ मिलकर मराठों की बड़ी फौज को पानीपत की तीसरी लड़ाई में हरा चुका था. हालांकि बक्सर के युद्ध में इन्हें हार का सामना करना पड़ा.
इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ इन्होंने 50 लाख रुपए के भुगतान के बदले अवध का राज्य अंग्रेजों के हवाले कर दिया, हालांकि ये नवाब बने रहे. 26 जनवरी 1775 को शुजाउद्दौला की मौत के बाद आसफुद्दौला अवध के चौथे नवाब बने.
आसफुद्दौला ने अवध की राजधानी को फैजाबाद से हटाकर लखनऊ कर दिया. इसके अलावा भी आसफुद्दौला के शासनकाल में अवध की राजनीति में कई बदलाव किए गए. लखनऊ में ईरान और इराक के शियाओं की तादाद बढ़ने लगी.
जल्द ही लखनऊ में एक शक्तिशाली शिया संस्कृति का उदय हुआ. शिया प्रवासियों की बढ़ती संख्या ने लखनऊ को एक महान बौद्धिक केंद्र में बदल दिया था. इसी समय आसफुद्दौला ने दौलत ख़ान का निर्माण कराया. वहीं, 1784 में रूमी दरवाजा और बड़ा इमामबाड़ा का निर्माण कराया गया.
अंग्रेज लखनऊ में भवनों पर की गई कारीगरी से बहुत प्रभावित थे. माना जाता है कि अंग्रेज जनरल क्लाउड मार्टिन ने इन महलों को दस लाख सोने के सिक्कों के बदले खरीदने की पेशकश भी कर दी थी.
आधे अवध पर अंग्रेजों का कब्जा
इस समय तक अवध में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ गया था. 21 सितंबर 1797 को आसफ़ुद्दौला की मौत हो गई. इसके बाद उनका पुत्र मिर्ज़ा वज़ीर अली ख़ान अवध का नवाब बना.
हालांकि, अंग्रेजों को शक था कि वज़ीर अली ख़ान आसफ़ुद्दौला का बेटा नहीं है, इसलिए उन्होंने 1798 में उसे गद्दी से उतार दिया.
असल में अंग्रेज अवध के पूरे साम्राज्य पर कब्जा करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने कमजोर वज़ीर अली को हटाकर अपने विश्वासपात्र आसफ़ुद्दौला के भाई सआदत अली खान द्वितीय को नवाब की गद्दी पर बैठा दिया.
इस दौरान भी लखनऊ में निर्माण कार्य नहीं रुके. सआदत अली खान ने दिलकुशा, हयात बक्श, फ़रहात बक्श व मशहूर लाल बारादरी का निर्माण कराया. जल्द ही अंग्रेजों की नीति भी यहां काम करने वाली थी.
लॉर्ड वेलेजली ने 1801 में नवाबों से संधि कर ली. इसके अनुसार, नवाब को अपनी फौज को खत्म कर अंग्रेजों की सेना का सहारा लेना था. देखते ही देखते अवध राज्य के रोहिलखंड और इलाहाबाद भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिल गए.
शुजाउद्दौला के शासनकाल के बाद से अब तक नवाब अवध की आधी जमीन अंग्रेजों के आगे हार चुके थे.
सआदत अली की मौत के बाद के नवाब पूरी तरह से अंग्रेजों के रहमोकरम पर चल रहे थे. हालांकि, उन्होंने अपने राज्य में शासन करने के लिए खुली छूट मांगी, लेकिन अंग्रेजों की नीति उनके ऊपर हावी थी.
ऐसे में एक समय ऐसा भी आया, जब अवध लगभग पूरी तरह अंग्रेजों पर निर्भर हो गया.
अंग्रेजों के आगे नहीं झुके नवाब वाजिद अली
आखिरकार, 13 फरवरी 1847 को नवाब अमजद अली शाह की मौत के बाद वाजिद अली शाह अवध के नवाब बने. वाजिद अली शाह अवध के स्वतंत्र शासक और नवाब थे. जिन्होंने अंग्रेजों के सामने झुकना कभी भी स्वीकार नहीं किया.
अवध के नवाब वाजिद अली शाह एक बीमार राज्य की कमान संभाल रहे थे. अंग्रेजों की नीतियों ने अवध को कंगाल और कमजोर राज्य बना दिया था. हालांकि, वाजिद अली शाह पूरी तरह से अंग्रेजों के हस्तक्षेप को खत्म नहीं कर पाए, लेकिन वो अपने साम्राज्य को मजबूत बनाने की जुगत में लगे रहे.
इसके लिए वाजिद अली ने सबसे पहले अपनी सेना को संगठित और मजबूत बनाने का कार्य किया. वे रोज लखनऊ में अपनी सेना की परेड की सलामी लेते. इससे अंग्रेजों के कान खड़े हो चुके थे. अंग्रेज अधिकारियों ने दवाब बनाकर नवाब को इस परेड में जाने से रोकने की कोशिश की. हालांकि, वो ऐसा कुछ भी नहीं कर पाए.
इससे पहले 1856 में वाजिद अली ने ब्रिटिश हुकूमत की अधीनता को स्वीकार करने मना कर दिया.
आखिरकार, 1857 की क्रांति का बिगुल बज चुका था. इस समय नवाब वाजिद अली शाह मटियाबुर्ज में थे. यहां उन्हें अंग्रेज सरकार ने जबरन कैद कर लिया.
बेगम हज़रत महल ने संभाला अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा
दिल्ली से उठी क्रांति की ज्वाला धीरे-धीरे पूरे हिंदुस्तान में फैल रही थी, लेकिन अवध की प्रजा अपने नवाब का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. ऐसे में वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल ने अवध का कार्यभार संभाला.
पूरा अवध नवाब को कैद किए जाने के खिलाफ था. लामबंदी बढ़ती जा रही थी. वैसे, 1857 की क्रांति से पहले ही अवध में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गदर छिड़ गई थी.
और फिर बेगम हजरत महल ने अपने लड़के बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया. अब वह पूरी तरह से अंग्रेजों से लड़ाई करने पर उतारु थीं. उन्होंने आम नागरिकों से भी इस लड़ाई के लिए सहयोग मांगा. उन्हें वो सहयोग मिला भी.
बिना किसी भेदभाव के हिंदू-मुस्लिम दोनों साथ-साथ अंग्रेजों से लोहा लेने निकल पड़े. अंग्रेजों के खिलाफ अपनी सेना का नेतृत्व खुद बेगम हज़रत महल कर रही थीं.
आलमबाग की लड़ाई में उन्होंने हाथी पर सवार होकर दुश्मन से लड़ाई लड़ी. इसके बाद चिनहट और दिलकुशा में हुई लड़ाई में उनकी सेना ने अंग्रेजों को बुरी तरह से हरा दिया.
इसके बाद उन्होंने कई लड़ाई लड़ते हुए सीतापुर, गोंडा, बहराइच, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सलोन जैसे क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ दिया और वहां अपना कब्जा जमा लिया. अंग्रेजों को अपनी जान बचाने के लिए लखनऊ रेजीडेंसी में सिर छुपाना पड़ा.
इसके बाद अवध की सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे लंबी लड़ाई लड़ी, जिसमें अंग्रेजों ने लखनऊ पर कब्जा जमा लिया. इस कारण बेगम हजरत महल को लखनऊ छोड़ना पड़ा.
हालांकि, इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध जारी रखा. उन्होंने फैजाबाद के मौलवी के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह जारी रखा.
जल्द ही अंग्रेज सभी जगह पर विद्रोह दबाने में कामयाब रहे. दिल्ली में गदर का नेतृत्व कर रहे मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने लाल किला छोड़ने पर मजबूर कर दिया और उन्हें बंदी बना लिया गया. इसी के साथ अवध की ये लड़ाई भी लगभग समाप्त हो गई और बेगम हज़रत महल यहां से दूर नेपाल चली गईं, जहां लगभग 30 साल बाद इनकी मौत हो गई.
आखिरकार, 1857 की क्रांति समाप्त हुई, बावजूद इसके अंग्रेज 7 जनवरी 1859 तक पूरी तरह से अवध पर कब्जा जमा पाए.
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